प्राचीन काल में नारी जाति का समुचित सम्मान रहा , परंतु मध्यकाल में एक समय ऐसा भी आया, जब स्त्री जाति को सामूहिक रूप से हेय, पतित, त्याज्य, पातकी व वेदों के पठन के लिए अनाधिकारी ठहराया गया।उस विचार धारा ने नारी के मनुष्योचित अधिकारों पर आक्रमण किया और उस पर अनेक ऐसे प्रतिबंध लगा दिए जिससे वह शक्तिहीन और विद्याहीन हो गई।इसका कारण वह उल्टी समझ ही है जो मध्यकाल के सामंतशाही अहंकार के साथ उत्पन्न हुई थी।
नर और नारी ईश्वर को दोनों दुलारे हैं। कोई भी निष्पक्ष और न्यायशील माता पिता अपने बालकों में इसलिए भेदभाव नहीं करते कि वह कन्या है या पुत्र है। ईश्वर ने धार्मिक कर्तव्य एवं आत्म कल्याण के साधनों की नर और नारी दोनों को ही सुविधा दी है । यह क्षमता न्याय और निष्पक्षता की दृष्टि से उचित है तथा तर्क और प्रमाणों से सिद्ध है।
वेदों में तो यहां तक कहा गया है कि यज्ञ में पति पत्नी दोनों का सम्मिलित रहना आवश्यक है। रामचंद्र जी ने सीता की अनुपस्थिति में सोने की प्रतिमा रखकर यज्ञ किया था। यह सबको पता है कि यज्ञ बिना वेद मंत्रों के नहीं होता । जब स्त्री यज्ञ करती है तो उसे मंत्रों का वेद अधिकार न होने की बात किस प्रकार से मानी जा सकती है। वेदों में अनेक मंत्रों की तो द्रष्टा स्त्रियां ही हैं । स्त्री के मुख से वेद मंत्रों के उच्चारण के लिए असंख्य प्रमाण वेदों में भरे पड़े हैं। अथर्व वेद, ऋग्वेद, काठक संहिता व अनेक प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से स्त्रियों के द्वारा वेद अध्ययन, मंत्रोच्चारण एवं वैदिक कर्मकांड करने का प्रतिपादन है ।
गायत्री मंत्र के स्त्रियों के अधिकार के संबंध में तो ऋषियों ने और भी स्पष्ट रूप से यम स्मृति एवं वशिष्ठ स्मृति में उल्लेख किया है, जिनमें स्त्रियों को गायत्री उपासना का विधान बताया गया है। उपरोक्त इन बातों से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों को पुरुषों के समान ही गायत्री का तथा वेदों का एवं यज्ञ करने का संपूर्ण अधिकार है।
सन्दर्भ: गायत्री महाविज्ञान भाग १/ पृ. 78 - 96
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